Tuesday, January 02, 2007

अजीब है जिन्दगी!!

मुझे भ्रम होता है कि
प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रयेक सुस्मित मे विमल सदा-नीरा है,
मुझे भ्रम होता है प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है;
पल भर मै इन सब से गुजरना चाहता हूँ,
प्रत्येक डर में से तिर आना चाहता हूँ।
इस तरह खुद को ही दिये-दिये फिरता हूँ,
अजीब है जिन्दगी!!

एक दिन सहचर तुम बिछुड़ोगे

एक दिन सहचर तुम बिछुड़ोगे।
सर्वभौम सिद्धान्त यही है,
मिलने का परिणाम यही है,
चाहे जीवन भर मत मानो पर
अंतिम संज्ञान यही है।
यदि बिगड़े हो तो संभलोगे,
यदि संभले हो तो बिछुड़ोगे।
एक दिन प्रियतम तुम बिछुड़ोगे।
अंत तक किसने साथ निभाया,
कोई ना अपना है ना पराया,
किसी ने मिटकर प्रेम दिया,
दूजे ने थोड़ा कर्ज चुकाया।
नहीं जुड़े यदि तत्वज्ञान से,
तो संभलोगे अतिशीघ्र जुड़ोगे।
एक दिन जीवन तुम बिछुड़ोगे।
नही किया यदि घृणा तो कर लो,
नही किया यदि प्रेम तो कर लो,
ये दुनिया अब फिर न मिलेगी,
मधु के रस से कटु अनुभव लो।
यह जीवन अरण्य है शिशुमन,
जिया करोगे, डरा करोगे।
एक दिन अनुभव तुम बिछुड़ोगे।
एक दिन परिचय तुम बिछुड़ोगे।
एक दिन सहचर तुम बिछुड़ोगे।

Monday, January 01, 2007

Baavra mann...

sun in the earth...sunflower
bird in the air...rain
eye within eye...daybreak
baavra mann dekhne chala ek sapna...
streets we have never walked on
windows we have never opened
hands we have never held
dreams we shall never...never see again
baavra mann dekhne chala ek sapna...
baavre se mann ki dekho baavri hain baatein...
sun in the earth...sunflower
bird in the air...rain
eye within eye...daybreak
lives we have never lived
hopes we have never realized
fires we have never lit
loves we shall never...never make again
baavra mann dekhne chala ek sapna...
sun in the earth...sunflower
bird in the air...rain
eye within eye...daybreak
i hear those strange whispers again...

अपने ही मन से

क्या खोया क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते जग में।
मुझे किसी से नही शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में॥
जनम मरन का विरक्त फेरा,
जीवन बंजारों का डेरा।
आज यहाँ कल कहाँ कूच है,
कौन जनता किधर सवेरा॥
अंधियारा आकाश असीमित,
प्राणों के पंखो को तौलें।
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी,
जीवन एक अनंत कहानी॥
पर तन की अपनी सीमाएँ,
यद्यपि सौ बरस कि वाणी।
इतना काफ़ी है;
अंतिम दस्तक पर खुद दरवाजा खोलें,
अपने ही मन से कुछ बोलें॥

पथिक तुम कितने दिन ठहरोगे?

पथिक तुम कितने दिन ठहरोगे?
था मधुमास तो बहुतेरे थे
मीत न अब कोई दीखता है
कठिन ग्रीष्म अब आने को है
आतुर आने को है विपदा,
प्रीत बढ़ाऊँ मीत बनोगे?

साथ निभाओ मैं न कहूँगा
यह तो झूठी ममता
पर जितना यह साथ रहे
रखो दुख सुख में समता
मै दुख दूँ तोह क्या सहलोगे?

चढ़ते सूरज का साथी होने
को सारा जग आतुर
मीत अगर विपदा मे फसता
तो अपनी को सब चातुर
क्षितिज में मेरे संग उतरोगे?

जी होगा तुम्हारा मिलने को,
जग तुम्को मुझसे काटेगा
अपने स्वारथ की पूर्ति हेतु
तेरा घनिष्ठ तुमको बाटेगा
क्या कटकर-बँटकर संभलोगे?
पथिक तुम कितने दिन ठहरोगे?